संगठनों के लिए मार्गदर्शक सुझाव: दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में सुधार की ओर

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संगठनों के लिए मार्गदर्शक सुझाव:
दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में सुधार की ओर

संगठनों के लिए मार्गदर्शक सुझाव:   दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में सुधार की ओर

Table of contents

इस स्वतंत्र रिपोर्ट में दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में उच्च गुणवत्ता की सेवाएं और गरिमापूर्ण कार्य सुनिश्चित करने वाले कुछ प्रमुख सिद्धांतों और पैमानों की पहचान की है। यह सिद्धांत और पैमाने, वैश्विक उत्तर और वैश्विक दक्षिण के कुछ चुनिंदा देशों में देखे जाने वाले प्रवास के रुझानों और देखभाल कार्य से जुड़े रोज़गार की मज़दूरों-केंद्रित श्रेणियों के आधार पर विकसित किए गए हैं। इन श्रेणियों को तैयार करने के लिए व्यापक डेस्क अनुसंधान और कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, चिली, फ्रांस, भारत, स्कॉटलैंड, फिजी और दक्षिण अफ्रीकी के केस अध्ययनों की मदद ली गई है।

इन सभी संदर्भों की जानकारी के लिए पूरी अंग्रेजी रिपोर्ट पढ़ें:

यह मार्गदर्शिका किस लिए है

उम्मीद है कि यह रिपोर्ट संगठनों के लिए जानकारी का एक विस्तृत संसाधन साबित होगी। इसमें ऐसे साक्ष्य-आधारित निष्कर्ष दिए गए हैं जिनकी मदद से आप राष्ट्रीय दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों में व्यावहारिक सुधार लाने के लिए अभियान चला सकेंगे। इस रिपोर्ट में वैश्विक उत्तर की स्थापित दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों के साथ वैश्विक दक्षिण में धीरे-धीरे उभरती दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों पर भी ज़ोर दिया गया है।

दीर्घकालिक देखभाल क्या है?

दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में स्वास्थ्य-केंद्र आधारित और घर पर दी जाने वाली, दोनों ही तरह की देखभाल सेवाएं आती हैं, जिनमें वेतन-प्राप्त कर्मियों के अलावा अनौपचारिक रूप से, पारिवारिक तौर पर और बिना वेतन के दी जाने वाली सेवाएं भी शामिल हैं । इसमें बुजुर्गों की देखभाल सेवा, विकलांगों की देखभाल सेवा और लंबी बीमारियों से पीड़ित व्यक्तियों से जुड़ी स्वास्थय सेवाएं आती हैं, जहाँ ज़ोर ज़्यादातर बुज़ुर्गों की देखभाल से जुड़ी सेवाओं पर होता है।

बुज़ुर्गों की देखभाल से जुड़े दो प्राथमिक उप-क्षत्र हैं: आवासीय या स्वस्थ्य-केंद्र (नर्सिंग होम) आधारित देखभाल और घर पर ही की जाने वाली देखभाल से जुड़ी औपचारिक सेवाएं। रिपोर्ट में ‘पारिवारिक देखभाल’ या वेतन-रहित देखभाल की महत्वपूर्ण भूमिका पर खास ज़ोर दिया गया है, जिनकी ज़िम्मेदारी ज़्यादार महिलाओं पर होती हैं। वैश्विक स्तर पर बुजुर्गों की देखभाल की प्राथमिक ज़िम्मेदारी आमतौर पर पारिवारिक देखभाल द्वारा उठाई जाती है लेकिन बड़ी संख्या में महिलाओं के घर के बाहर काम करने और बड़े स्तर पर प्रवास की वजह से नई पारिवारिक देखभाल में गिरावट देखी जा रही है। इन बदलावों के चलते, औपचारिक देखभाल सेवाओं में बढ़ोत्तरी देखी जा रही है, जिसकी ज़िम्मेदारी अक्सर सरकार उठाती है और कई विकसित देशों में इसे लाभकारी और गैर-लाभकारी संस्थाओं को ठेके पर दिया जाता है।

अच्छी गुणवत्ता देखभाल के लिए मुख्य सिद्धांत

रिपोर्ट ने ऐसे छह मुख्य सिद्धांतों की पहचान की है जिनकी बुनियाद पर गरिमापूर्ण काम और उच्च गुणवत्ता वाली दीर्घकालिक देखभाल प्रणाली खड़ी की जानी चाहिए।

प्रत्येक सिद्धांत का सारांश देखने के लिए शीर्षकों पर क्लिक करें:

सिद्धांत 1: देखभाल की पूरी लागत जितना सरकारी बजटीय आवंटन

  • मुनाफा कमाने के चलन को घटाने के लिए सरकारी बजट से पोषित दीर्घकालिक देखभाल प्रणाली खड़ी करने के लिए राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर नीतियां और वित्तीय व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए। देखभाल की पूरी लागत जितने सरकारी बजट का आवंटन किया जाना चाहिए ताकि सेवाओं की आपूर्ति ज़रुरत के आधार पर की जाए, आर्थिक क्षमता के आधार पर नहीं।

सिद्धांत 2: सार्वजनिक या गैर-लाभकारी सेवा आपूर्ति

  • दीर्घकालिक देखभाल उपलब्ध कराने का सबसे अच्छा तरीका है सरकारी कर्मचारियों के ज़रिए सीधे तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र में सेवाएं दिया जाना। निजी क्षेत्र की भागीदारी अत्यधिक मुनाफाखोरी और निचली गुणवत्ता वाली सेवाओं को बढ़ावा देती है और जैसा कि कोविड के दौरान देखा गया, इससे आपातकालीन परिस्थितियों से निपट पाने की हमारी क्षमता भी कम होती है। कर्मचारियों और सेवा-उपयोगकर्ताओं (सेवा का इस्तेमाल करने वाले) पर होने वाले खर्च को घटाने के दबाव के चलते, लाभकारी निजी स्वास्थ्य केंद्रों में कोविड-19 मृत्यु दर, सरकारी और गैर-लाभकारी स्वास्थ्य-केंद्रों के मुकाबले कहीं ज़्यादा थी।

सिद्धांत 3: सार्वजनिक प्रबंधन

  • दीर्घकालिक देखभाल एक सार्वजनिक सेवा है। इसके सार्वजनिक प्रबंधन के लिए ज़रूरी है कि सरकार जनहित में काम करते हुए, प्रणाली और संस्था के स्तर पर अच्छी गुणवत्ता वाली देखभाल सेवाओं और इसमें गरिमापूर्ण कार्य को लागू करे, समय-समय पर उसकी समीक्षा करे, और इन पर निगरानी रखे, चाहे सेवा उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी निजी संस्थाओं को दी जाए या सरकारी या गैर-लाभकारी संस्थाओं को। जब दीर्घकालिक देखभाल सीधे तौर पर सरकारी कर्मचारियों के ज़रिए उपलब्ध कराई जाती है, तब इसकी गुणवत्ता ज़्यादा होती है। इन्हें ठेके पर निजी गैर-लाभकारी और लाभकारी स्वास्थ्य केंद्रों को सौंपे जाने पर सरकार को इन संस्थाओं द्वारा सरकारी पैसे के खर्च पर और नियमों के पालन पर कड़ी नज़र रखनी चाहिए।

सिद्धांत 4: सार्वजनिक डेटा के संबंध में पारदर्शिता और जवाबदेही

  • सार्वजनिक प्रबंधन संभव बनाने के लिए सरकारी पैसे को लेकर सार्वजनिक जवाबदेही भी होनी चाहिए। डेटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना चाहिए, जिसमें दीर्घकालिक देखभाल प्रणाली में नियमों के अनुपालन, कर्मचारियों की संख्या, संविदा रोज़गार के विभिन्न स्वरूपों, ठेकेदारों के प्रदर्शन, और देखभाल सेवाओं की गुणवत्ता से जुड़े आंकड़े शामिल होने चाहिए। प्रणाली के स्तर पर सुधार लाने के लिए और देखभाल पाने वालों को उच्च गुणवत्ता वाली सेवाएं दे पाने के लिए यह ज़रूरी है कि सेवा-प्रदाता (सेवा देने वाले) गरिमापूर्ण रोज़गार सुनिश्चित करें, अपने काम के बारे में सार्वजनिक रूप से जानकारी उपलब्ध कराएं ताकि इसका स्वतंत्र रूप से आंकलन किया जा सके। दीर्घकालिक देखभाल प्रदाताओं को अपने काम करने के तरीके और सेवा की गुणवत्ता को लेकर ज़्यादा से ज़्यादा पारदर्शिता दिखानी चाहिए क्योंकि इन सेवाओं को लाभकारी संस्थाओं को ठेका पर दिए जाने पर सरकारी पैसे के इस्तेमाल को लेकर पारदर्शिता से जुड़े कई सवाल खड़े होते हैं।

सिद्धांत 5: गरिमापूर्ण कामकाजी परिस्थितियां

  • दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में गरिमापूर्ण कामकाजी परिस्थितियों में वेतन दर और काम करने के उचित घंटे शामिल हैं ताकि सभी कर्मी जीवन-निर्वाह वेतन कमा सके, काम की जगह पर गरिमा महसूस करें, अपने और अपने परिवार के जीवन का निर्वाह कर सकें और काम के बाहर भी भरपूर जीवन जी सकें। दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में गरिमापूर्ण कामकाजी परिस्थितियों में पूर्णकालिक सुरक्षित रोज़गार; किए गए काम की पूरी अवधी के लिए वेतन का भुगतान किया जाना, जिसमें दस्तावेज़ीकरण और मुवक्किल से मिलने के लिए आने-जाने में खर्च होने वाला समाया भी जोड़ा जाए; वेतन-सहित छुट्टी और सेवी-निवृत्ति लाभ का प्रावधान; उचित प्रशिक्षण और पेशे में तरक्की के अवसर भी शामिल हैं।

सिद्धांत 6: गरिमापूर्ण देखभाल

  • देखभाल में निरंतरता गरिमा सुनिश्चित के लिए बहुत ज़रूरी है, जिसका अर्थ है कि दीर्घकालिक देखभाल सेवा-कर्मियों को सेवा-उपयोगकर्ताओं को जानने का, उनकी ज़रूरतों और पसंद-नापसंद को समझने का समय मिलना चाहिए। गरिमापूर्ण देखभाल के लिए ऐसे कर्मियों का होना भी बहुत ज़रूरी है जिन्हें उचित प्रशिक्षण दिया गया हो, जो अपने काम में कुशल हों और जिन्हें सभी ज़रूरी समर्थन दिया जाए। दी जाने वाली देखभाल के बारे में चुनाव कर पाना और देखभाल सेवा कब दी जाती है इसके बारे में लचीलापन, दोनों ही महत्व रखते हैं।

प्रमुख क्षेत्र रुझान

दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में बाज़ारीकरण, काम और रोज़गार

पूरे क्षेत्र में उभरते रुझानों का पता लगाने के लिए नीचे दी गई थीम पर क्लिक करें:

दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र का बाज़ारीकरण

वैश्विक उत्तर के विभिन्न देशों में दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र की विकास यात्रा एक-दूसरे से कुछ मायनों में एक जैसी भी रही है और कुछ मायनों में अलग भी। दीर्घकालिक देखभाल के बाज़ारीकरण के लिए इस्तेमाल की गई रणनीतियों पर ‘नवीन सार्वजनिक प्रबंधन’ की विचारधारा का गहरा प्रभवा पड़ा है। जैसा कि खासतौर पर ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और स्कॉटलैंड के केस अध्ययन में देखा गया, ‘नवीन सार्वजनिक प्रबंधन’ की विचारधारा बाज़ारीकरण को बढ़ावा देती है, जिसके तहत सार्वजनिक सेवाओं को ठेके पर दे दिया जाता है, यानी सीधे तौर पर सरकार द्वारा, अपने कर्मचारियों के ज़रिए दी जाने वाले सेवाओं को निजी (लाभकारी) और स्वयंसेवी (गैर-लाभकारी) संस्थाओं के नेटवर्क को सौंप दिया जाता है। इस नीति को सही ठहराने के लिए कई दावे किए जाते हैं जो ‘नवीन सार्वजनिक प्रबंधन’ की विचारधारा से जुड़े हैं: सरकार द्वारा सीधे तौर पर उपलब्ध कराई जाने वाली सेवाओं के खर्च को उठा पाने की सरकार की तथाकथित असमर्थता; सेवा प्रदाताओं और उनके कर्मचारियों को बाज़ार के अनुशासन और जोखिम के सिद्धांत के दायरे में लाने से सेवाओं की गुणवत्ता के बेहतर होने का दावा; निजी क्षेत्र में इस्तेमाल की जाने वाली प्रबंधन प्रक्रियाओं और नए विचारों के ज़रिए सार्वजनिक सेवाओं की दक्षता में सुधार; प्रतियोगिता के ज़रिए सेवा आपूर्ति की लागत में कटौती और प्रभावशालिता में बढ़ौत्तरी; कुछ प्रकार के प्रदाताओं (यानी गैर-लाभकारी) की अपने उपयोगकर्ताओं और उनकी ज़रूरतों के साथ नज़दीकी; मज़दूर संगठनों और सामूहिक सौदेबाज़ी से जुड़े नियमों और कानूनों से छूट; और फ्रंटलाइन पर काम करने वाले देखभाल कर्मियों के रोज़गार की शर्तों और नियमों को कमज़ोर बनाया जाना।

सार्वजनिक सेवा की आपूर्ति श्रृंखला में मौजूद संस्थागत संबंध

बाज़ारीकरण के प्रभाव में दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों के तहत सरकार और निजी तथा गैर-लाभकारी सेवा प्रदाताओं के बीच ख़ास तरह के सत्ता समीकरण पैदा होते हैं। एक तरफ तो यह प्रदाता सरकार पर आर्थिक सहायता के लिए निर्भर होते हैं। सरकार द्वारा सीधे तौर पर सेवा दिए जाने की व्यवस्था को धीरे-धीरे ठेकेदारी व्यवस्था के ज़रिए ‘खोखला’ बना दिया जाता है, जिसके तहत, सरकार खुद सेवा-प्रदाता होने के साथ-साथ दूसरे प्रदाताओं को बढ़ावा और प्रोत्साहन देने की भूमिका भी निभाती है। केंद्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय सरकारें, निजी और स्वयंसेवी सेवा-प्रदाताओं का एक नेटवर्क तैयार करती हैं जिसका नेतृत्व, समन्वय और प्रबंधन सरकार द्वारा किया जाता है।

सरकार और दीर्घकालिक देखभाल प्रदाताओं के बीच इस तरह के जटिल संबंध कई समस्याओं को जन्म देते हैं। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और स्कॉटलैंड के केस अध्ययन उजागर करते हैं कि बाज़ारीकरण के वश में आ चुकी इस तरह की देखभाल प्रणालियों के तहत, सरकार द्वारा सेवा-प्रदाताओं को दिया गया आर्थिक योगदान अक्सर देखभाल की पूरी लागत या महंगाई के अनुरूप नहीं होता है। यही नहीं, इस आर्थिक योगदान को कड़े ‘प्रमुख प्रदर्शन संकेतकों’ से जोड़ा जाता है, जो प्रदाताओं पर साल-दर-साल सेवाओं की दक्षता बढ़ाने दबाव डालता है और बजट की कमी के दौर में, इसके चलते आर्थिक सहयोग में कटौती की जाती है। सेवा-प्रदाता खासतौर पर उन स्थितियों में ज़्यादा संकट का सामना करते हैं जब उनका लगभग पूरा खर्च सिर्फ किसी एक आर्थिक स्रोत से ही आता हो और उनके पास आर्थिक सहयोग का और कोई वैकल्पिक जरिया न हो।

सुरक्षा और टिकाऊपन के नज़रिए से, आर्थिक सहयोग देने वालों की ओर से सेवा-प्रदाताओं पर पैसे की बचत करने और सेवाओं की दक्षता बढ़ाने के लिए डाले जाने वाले निरंतर दबाव की वजह से कुछ संस्थाओं को इस क्षेत्र से पूरी तरह या आंशिक रूप से बाहर जाने पर मजबूर होना पड़ता है, जिसके चलते इन सेवाओं की ज़िम्मेदारी फिर सरकार पर आ जाती है। बाज़ारीकरण की इस प्रक्रिया के पीछे ‘नवीन सार्वजनिक प्रबंधन’ और नव-उदारवाद से जुड़े मूल्यों के अलावा विकलांग-अधिकार आंदोलन द्वारा चलाए गए मानवाधिकार अभियान भी हैं। अब बढ़ते स्तर पर ऐसी सेवाओं की मांग की जा रही है जो सेवा-उपयोगकर्ताओं की अपेक्षाओं और हितों को सबसे ऊपर रखे। इस सोच के तहत सेवा-उपयोगकर्ता को अपनी निजी पसंद-नापसंद व्यक्त करने वाले उपभोक्ता के रूप में देखा जाता है जिसमें अपना सेवा-प्रदाता (सरकारी, निजी या स्वयंसेवी) चुन पाने से लेकर सेवा देने वाले कर्मी का चुनाव भी शामिल है। यह सोच फिर सेवा की अवधी (कितने घंटे) और समय (कब) से जुड़े फैसलों को प्रभावित करती है।

सरकारों ने (जैसे ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और स्कॉटलैंड में) देखभाल के ‘वैयक्तिकरण’ की शुरुआत करते हुए (जिसे ‘देखभाल के लिए नकद राशि’ योजना कहा जाता है) देखभाल सेवाओं के बाज़ारीकरण को और बढ़ावा दिया है। इसके तहत सरकारों ने ऐसे भुगतान कार्यक्रमों की शुरुआत की है जिनमें पैसा निजी और स्वयंसेवी प्रदाताओं के पास जाने के बजाय, निजी बजट के रूप में नागरिकों या सेवा-उपयोगकर्ता के खातों में जाता है, जिसके ज़रिए वे अपने प्रदाता का चुनाव कर सकते हैं। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य, सभी के लिए ‘एक ही तरह सेवा’ उपलब्ध कराने की बजाय, सेवा-उपयोगकर्ताओं को खुद की पसंद-नापसंद के अनुसार, अपनी सेवाओं के बारे में खुस फैसला ले पाने में सशक्त बनाना है।

देखभाल कार्य का लिंग-संबंधी पक्ष और इसके के मूल्य का कम मूल्यांकन

देखभाल का काम पारंपरिक रूप से महिलाओं से जुड़ा रहा है और इसके चलते इसके मूल्य को हमेशा कम आंका गया है। बाज़ारीकरण की प्रक्रिया इस लिंग-आधारित प्रवृत्ति को और मज़बूत बनाती है। दीर्घकालिक देखभाल से जुड़ी नौकरियों के लिए बहुत कम वेतन दिया जाता है क्योंकि इन पेशों में ज़्यादातर महिलाएं होती हैं और देखभाल कार्य को महिलाओं की, विशेष रूप से माताओं की, स्वाभाविक ज़िम्मेदारी के रूप में देखा जाता है। इसके कारण, पालन-पोषण और करुणा जैसे कौशल को उनका सही मूल्य नहीं दिया जाता है। दीर्घकालिक देखभाल सेवाओं को आर्थिक मदद देने वाली सरकारें और सरकारी सस्थाएं, महिलाओं द्वारा किए जाने वाले देखभाल काम के मूल्य को कम आंकने के लिए ज़िम्मेदार हैं क्योंकि सेवाओं की लागत निर्धारित करते समय वे इस काम से जुड़े कौशल को उसका सही मूल्य नहीं देते हैं।

दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल

बाज़ारीकरण से जुड़ी इस चर्चा में, सेवाओं की लागत घटाने, पैसे की बचत करने और महिलाओं के कार्य के मूल्य को कम आंकने में प्रौद्योगिकी की भूमिका को रेखांकित करना बहुत ज़रूरी है। बाज़ारीकरण के वश में आ चुकी देखभाल प्रणालियों में, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को लागत घटाने के लिए ज़रूरी प्राथमिकता के रूप में देखा जाता है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, सार्वजनिक सेवाओं का प्रबंधन करने वाले अधिकारी, प्रौद्योगिकी को ऐसे औज़ार के रूप में देखते हैं जो सेवा-दक्षता बढ़ाने में, लागत घटाने में और कर्मियों पर ज़्यादा नियंत्रण बना पाने में उनकी मदद कर सकती है। उस दौर में जब लागत घटाना दीर्घकालिक देखभाल प्रदाताओं के लिए उच्च प्राथमिकता बन गई है, प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल और तेज़ी से बढ़ रहा है।

 

वर्ष 2019 में, यूके में सार्वजनिक सेवाओं के लिए आर्थिक सहयोग देने वाली सरकारी संस्थाओं के दीर्घकालिक देखभाल सेवाओं के निदेशकों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि उनमें से 96% का मानना था कि लागत घटाने के लिए सूचना-संचार प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल ज़रूरी है। बल्कि, इन्हें सार्वजनिक सेवाओं के बजट में की जाने वाली कटौती के संदर्भ में कानूनी रूप से अनिवार्य सेवाओं को जारी रखने के एक ज़रूरी माध्यम के रूप में देखा जाता है (एडीएएसएस, 2019)।   

 

संभव है कि प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के कारण दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों के काम के स्वरूप में नकारात्मक बदलाव किए जाएं। दीर्घकालिक देखभाल के क्षेत्र में रोज़गार की बढ़ती असुरक्षा और काम के बढ़ते बोझ का एक बड़ा कारण प्रौद्योगिकी का बढ़ता इस्तेमाल भी है।

 

प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के देखभाल सेवा-उपयोगकर्ताओं पर भी नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं क्योंकि, रिमोट, सेंसर और रोबोट के बढ़ते इस्तेमाल के चलते उन्हें अपने-सामने वाले, इंसानी संपर्क से वंचित रखा जाता है। उपयोगकर्ता के घरों में देखभाल कर्मी कितना समय बिता रहे हैं, इसपर सूचना-संचार प्रौद्योगिकी की मदद से नज़र रखी जाती है और इसके कारण मुश्किल हालातों से गुज़र रहे मरीज़ों की देखभाल से जुड़े सामाजिक और आपसी रिश्तों के पहलुओं पर ध्यान दे पाने की कर्मियों की स्वायत्ता कम हो जाती है।

वित्तीयकरण के ज़रिए दीर्घकालिक देखभाल से मुनाफा कमानाचिली और भारत के केस अध्ययनों में हमने देखा कि इन देशों की अभी विकसित हो रही दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की रुचि धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। बड़ी, निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा मुनाफाखोरी बाज़ारीकरण के वश में आ चुकी दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों का एक और पहलू है जो अनुचित रोज़गार संबंधों को जन्म देता है। सीआईसीटीएआर, फेडरेशन सांटे एक्शन  सोसिअल सिजीटी और फेडरेशन सीएफडिटी सांटे-सोसिओक्स  द्वारा हाल ही में (2022) रिपोर्ट किया कि ओरपिया नाम की कंपनी ने देखभाल केंद्रों को क़र्ज़ और किराए के बोझ से लाद दिया है। ओरपिया देखभाल केंद्रों को मुनाफे के लिए बेच देती है और फिर उन्हीं केंद्रों को उनके नए मालिकों से किराए पर ले लेती है। इस तरह की सट्टेबाज़ी, ओरपिया द्वारा लक्सेम्बर्ग में स्थापित उसकी 40 सहायक कंपनियों के एक पेचीदा नेटवर्क के ज़रिए की जाती है। हालांकि यह लेनदेन गैर-कानूनी नहीं हैं लेकिन इनमें बेहतर पारदर्शिता की मांग की जा रही है (सीआईसीटीएआर और अन्य, 2022)। ऐसा करने वाली सिर्फ ओरपिया ही नहीं है। इस तरह का वित्तीयकरण काफी आम है। सिर्फ यूके में ही देखभाल से जुड़ी संपत्ति की कुल कीमत 245 बिलियन पौंड आंकी गई है, जिसको लेकर पिछले पांच सालों में 1.5 बिलियन पौंड का लेनदेन देखा गया (सीआईसीटीएआर, 2023)।  

 

तेज़ी से बढ़ते बाज़ारीकरण के चलते, आर्थिक सहयोग देने वाली प्रभुत्वशाली संस्थाएं सेवा-प्रदाताओं पर लागत घटाने का दबाव डालती हैं जिसके परिणामवश, ज़्यादातर महिलाओं द्वारा किए जाने वाले देखभाल कार्य के मूल्य को कम आंका जाता है, लागत घटाने वाली प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाता है, और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए शोषणकारी वित्तीयकरण के दरवाज़े खुल जाते हैं। इन प्रक्रियाओं की वजह से प्रदाताओं के बीच रोज़गार के स्तर को रसातल तक लेजाने की होड़ शुरू हो जाती है। पिछले कुछ सालों में वैश्विक उत्तर के कुछ देशों में (जैसे स्कॉट्लैंड और कनाडा) सरकारी बजट को काबू में करने की कोशिश के तहत यह बदलाव और भी बड़े स्तर पर महसूस किए जा रहे हैं।

काम करने की स्थिति

कामकाजी परिस्थितियों में देखे जाने वाले प्रमुख रुझानों का संक्षिप्त ब्यौरा नीचे दिया गया है।

पारिवारिक देखभाल में गिरावट

पारिवारिक देखभाल में देखी जा रही कमी और बाज़ारीकरण के रुझानों के बीच भी एक नज़दीकी रिश्ता है। वैश्विक स्तर पर, महिलाएं बिना वेतन के तीन प्रकार के पारिवारिक देखभाल कार्य करती हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाएं पारिवारिक देखभाल कार्य में 80% योगदान देती हैं (आईएलओ, 2019)। देखभाल कार्य में बिना वेतन के किए गए काम का अनुपात वैश्विक दक्षिण में कहीं ज़्यादा है। लेकिन, जैसा कि हमारे केस अध्ययनों से ज़ाहिर होता है, जनसंख्या में हो रहे बदलाव और सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक रुझानों की वजह से पारिवारिक देखभाल कार्य पर पारंपरिक रूप से देखी जानी वाली निर्भरता में भी अब परिवर्तन की लहर आ रही हैं। वैश्विक दक्षिण के हमारे सभी केस अध्ययन उजागर करते हैं कि औद्योगीकरण, शहरीकरण, शिक्षा के बढ़ते अवसर, जनसंख्या के स्तर पर आते बदलाव, और देखभाल अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण, पारिवारिक देखभाल पर निर्भरता को कम कर रहे हैं। लेकिन, जैसे-जैसे यह रुझान और तेज़ हो रहे हैं, इस क्षेत्र पर किये जाने वाले खर्च का ज़्यादातर हिस्सा, माताओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर ही खर्च किया जा रहा है (जैसे फिजी, दक्षिण अफ्रीका और भारत में)। दीर्घकालिक देखभाल की बढ़ती मांग के बावजूद, हमारे केस अध्ययनों से इन सेवाओं की आपूर्ति में गहरी कमियां उजागर होती हैं।

 

यही नहीं, जैसे-जैसे बाज़ारीकरण अलग-अलग रूप में वैश्विक उत्तर के बाहर आकर अपने पैर पसारता है, वैश्विक दक्षिण में पारिवारिक देखभाल में देखी जा रही गिरावट, दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों और सेवा-प्रदाताओं के लिए नए खतरे पैदा करेगी। सबसे पहला खतरा देखभाल कार्य और आपूर्ति श्रृंखलाओं के वैश्वीकरण से पैदा होता है जिसके तहत वैश्विक उत्तर में स्थानीय कर्मियों की जगह प्रवासी कर्मियों को नियुक्त किया जाता है। वैश्विक दक्षिण से वैश्विक उत्तर की तरफ होने वाले कुशल कर्मियों के इस पलायन की वजह से, पहले ही स्वास्थ्य और दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में मानव-संसाधनों की कमी से जूझ रहे वैश्विक दक्षिण में यह संकट और गहरा होता जाएगा।

 

दूसरा खतरा इस बात से पैदा होता है कि वैश्विक दक्षिण के देशों में भी अब जनसंख्या बूढ़ी होती जा रही है। हमारे केस अध्ययनों से उजागर होता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां नए बाज़ारों की तलाश कर रही हैं (जैसे भारत और दक्षिण अफ्रीका में)। सरकार द्वारा प्रभावी नियंत्रण और दीर्घकालिक देखभाल प्रणाली के प्रति प्रतिबद्धता के अभाव में, सरकारें, कर्मचारी और सेवा-उपयोगकर्ता आसानी से इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उन सभी आर्थिक हथकंडों का शिकार बन सकते हैं जिन्हें फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और स्कॉटलैंड जैसे देशों में पहले से आज़माया जा चुका है। वैश्विक दक्षिण के देशों में देखभाल क्षेत्र में बढ़ती निजी संस्थाओं की मौजूदगी, इन क्षेत्र के कर्मियों को संगठित करने के प्रयासों के लिए खतरा साबित हो सकती है क्योंकि जैसा कि हमारे केस अध्ययनों से ज़ाहिर होता है, इस क्षेत्र में काम करने वाले ज़्यादातर कर्मी अनौपचारिक हैं जो वेतन-रहित कार्य से मिलती-जुलती परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। वैश्विक दक्षिण में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढ़ती दीर्घकालिक देखभाल गतिविधियाँ, जैसे वित्तीयकरण के प्रयास, जैसे रियल एस्टेट में लेनदेन के ज़रिए मुनाफा कमाने की कोशिश, जैसे दो-स्तरीय देखभाल प्रणाली बनाने की कोशिश और कामकाजी परिस्थितियों में गिरावट, इत्यादि, उन सभी मज़दूर संगठनों के लिए चुनौती पैदा करेंगी जो अनौपचारिक और बिना वेतन के किए जाने वाले देखभाल कार्य के सार्वजनिक प्रबंधन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में रोज़गार का निचला स्तर

वेतन और कामकाजी परिस्थिति

दीर्घकालिक देखभाल के बाज़ारीकरण पर किए गए कई अध्ययनों ने रेखांकित किया है कि इस क्षेत्र में दिए जाने वाले वेतन और मौजूद कामकाजी परिस्थितियां बाकी पेशों से निचले स्तर पर हैं और ज़्यादातर देशों में यह पेशा वेतन के मामले में सबसे निचले स्तर का पेशा है। आईएलओ द्वारा वर्ष 2017 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि आमतौर पर, दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों को बाकी देखभाल कर्मियों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है, और उन्हें निचले स्तर की कामकाजी परिस्थिती और सामाजिक सुरक्षा दी जाती है। जब देखभाल कार्य ज़्यादा भारी हो जाता है तो कर्मी इस पेशे को छोड़कर इसी तरह के कम वेतन वाले पेशों की ओर चले जाते हैं, जैसे दुकानदारी या होटल से जुड़ी नौकरियां, जहाँ वेतन थोड़ा बेहतर और/या काम का बोझ कम होता है। यूरोफॉउंड (2020) के अनुसार, यूरोपीय संघ में, दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों को राष्ट्रीय स्तर के औसत वेतन से भी कम वेतन दिया जाता है, और निजी क्षेत्र में दिए जाने वाले वेतन सार्वजनिक प्रदाताओं द्वारा दिए जाने वाले वेतन से काफी कम होते हैं।

जिस तरह बढ़ते बाज़ारीकरण ने सार्वजनिक क्षेत्र के मुकाबले बाकि क्षत्रों में वेतन के स्तर को घटाया है वो भी एक चिंता का विषय है। बाज़ारीकरण की वजह से उन रोज़गार लाभों में भी कटौती की गई है जिनका स्तर पहले समान काम करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मियों के बराबर हुआ करता था। इन लाभों में पेंशन, बीमार होने पर वेतन-सहित छुट्टी, ओवरटाइम और बेवक़्त काम करने से जुड़े अतिरिक्त लाभ शामिल थे। देखभाल कर्मियों को बढ़ते स्तर पर कानूनी न्यूनतम वेतन से भी वंचित रखा जा रहा है। वेतन में इस कटौती का कारण है ठेके लेने वाले सेवा-प्रदाताओं के बीच सेवाओं के मूल्य को लेकर होने वाली स्पर्धा जिसकी वजह से उन्हें मिलने वाला आर्थिक योगदान देखभाल की पूरी लागत (जैसे आने-जाने पर होने वाला खर्च) के लिए काफी नहीं होता है। इसके चलते, सामुदायिक दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों को एक घर से दूसरे घर जाने में खर्च होने वाले समय का भुगतान नहीं किया जाता है, जिसकी वजह से उन्हें मिलने वाला औसत प्रति घंटा वेतन कानूनी न्यूनतम वेतन से भी नीचे गिर जाता है। प्रौद्योगिकी भी लागत घटाने के लिए इस्तेमाल की जाती है। सूचना-संचार प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर्मियों पर नज़र रखने के लिए किया जाता है, जैसे कर्मी एक सेवा-उपयोगकर्ता के घर पर कितना समय खर्च कर रहे हैं, इत्यादि।

 

वैश्विक उत्तर में देखे जाने वाले इन चिंताजनक रुझानों से पीएसआई के वो सभी साथी संगठनों सबक सीख सकते हैं जो दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों के लिए औपचारिक कर्मचारियों का दर्जा और कामकाजी परिस्थितियां तथा न्यूनतम वेतन  सुनिश्चित करने के लिए अभियानों की शुरुआत करने जा रहे हैं। दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों से कई बार अपनी यूनिफॉर्म खरीदने, और यहाँ तक की अपने प्रशिक्षण के लिए खुद पैसे से योगदान देने के लिए कहा जा सकता है। वयस्कों की दीर्घकालिक देखभाल के बाज़ारीकरण के चलते, कामकाजी परिस्थितियों में गिरावट उन पारंपरिक रोज़गार संबंधों के अंत की ओर इशारा करती है, जिसके तहत सभी कर्मियों को एक बुनियादी न्यूनतम वेतन दिया जाता था और उनकी भर्ती, प्रशिक्षण, स्वास्थ्य और सुरक्षा के प्रति नियोक्ताओं की कुछ न्यूनतम ज़िम्मेदारियाँ हुआ करती थी।

 

असुरक्षा

बाज़ारीकरण के चुंगल में आ चुकी दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों में काम और रोज़गार की असुरक्षा बढ़ सकती है। सरकार की बदलती प्राथमिकताओं और बजटीय कटौती के कारण आर्थिक योगदान में अस्थिरता आ सकती है। कई देशों में आर्थिक योगदान में जिस कटौती का सामना कई निजी और गैर-लाभकारी प्रदाता कर रहे हैं, उसकी वजह से औसत से कहीं अधिक संख्या में संविदा कर्मियों से काम कराया जाता है (जैसे स्कॉटलैंड में) या बजटीय आवंटन की अनिश्चितता की वजह से साल के कुछ महीनों के दौरान बड़ी संख्या में कर्मियों को अनिश्चित अनुबंधों के तहत काम पर रखा जाता है (जैसे चिली में)। ओईसीडी (विकसित) देशों में, पूरे स्वास्थ्य क्षेत्र के मुकाबले दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में गैर-सामान्य, अस्थायी रोज़गार की दर दुगनी है। यूरोप के आंकड़ें बताते हैं कि स्वास्थ्य क्षेत्र के मुकाबले दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र के कर्मी कहीं ज़्यादा अनुपात में दूसरे रोज़गार की तलाश कर रहे हैं और इसका कारण दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में रोज़गार असुरक्षा और असंतोष है (ओईसीडी, 2022)।

 

दीर्घकालिक देखभाल का वैयक्तिकरण भी इस असुरक्षा को बढ़ाता है। वैयक्तिकरण के तहत, सेवा-उपयोगकर्ता को ‘उपभोक्ता’ के रूप में देखा जाता है जो सेवा देने वाले कर्मी का चुनाव कर सकते हैं; यह बाज़ार की ओर से आने वाला दबाव को और बढ़ाता है। यह भी रोज़गार असुरक्षा में इज़ाफ़ा करता है क्योंकि सेवा-उपयोगकर्ता की ज़रूरतों को पूरा नहीं करने पर कर्मियों को बदला जा सकता है या काम से पूरी तरह से निकाला भी जा सकता है। ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जहाँ सेवा-उपयोगकर्ता की मांगों को वैसे के वैसा पूरा न किए जाने पर उन्होंने सेवा-प्रदाता बदले जाने की मांग की और फिर कर्मियों को काम से निकाले जाने की धमकी दी गई।

काम के भार में बढ़ोत्तरी

दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में काम के भार में कई तरीकों से बढ़ोतरी देखी जाती है। आने-जाने में खर्च होने वाले समय के लिए पर्याप्त भुगतान न करना और काम पूरा होने तक काम में लगे रहने की कर्मियों की प्रवृत्ति के चलते, कर्मियों को कई बार तय अवधी से ज़्यादा काम करना पड़ता है, यानी वे कई बार बिना वेतन काम भी करते हैं। जैसा कि ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और स्कॉटलैंड के केस अध्ययनों में पाया गया, सेवाओं की बढ़ती मांग के साथ-साथ बजटीय सहयोग में कमी और कर्मियों का अभाव की वजह से कर्मियों पर काम का भार बढ़ता जा रहा है। दीर्घकालिक देखभाल से जुड़े कुछ शुरूआती अध्ययन दर्शाते हैं कि कर्मियों की कमी की वजह से उन्हें विराम (ब्रेक) के दौरान और काम के तय घंटों के बाद भी काम करना पड़ता है, और वो भी बिना किसी अतिरिक्त भुगतान के। एक और आम चलन के तहत कर्मियों की कमी और अनुपस्थिति की वजह से उपस्थित कर्मियों से दो शिफ्ट में काम करना पड़ता है। और बिना वेतन के लिए गए इस ‘श्रमदान’ या ‘त्याग’ को महिलाओं के देखभाल कर पाने की असीमित क्षमता के रूप में देखा जाता है। सेवा-उपयोगकर्ता के लिए इस त्याग की बुनियाद, जिसे ‘ज़बरन परोपकार’ भी कहा जाता है, उन लिंग-आधारित मान्यताओं पर टिकी है जिनके तहत बिना वेतन के देखभाल काम करना महिलाओं की स्वाभाविक ज़िम्मेदारी मानी जाती है।

 

बड़ी संख्या में कर्मियों के काम छोड़ कर जाने की वजह से या अनुपस्थित रहने की वजह से होने वाली काम के भार में बढ़ोत्तरी का असर सेवा की गुणवत्ता और कर्मियों तथा उपयोगकर्ता के कुशल-क्षेम पर भी पड़ता है। अध्ययनों ने दर्शाया है कि बहुत ज़्यादा लंबे घंटों तक काम करने वाले कर्मी, तनाव और अत्याधिक थकान महसूस कर सकते हैं जो उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। इसके कारण वे छुट्टी लेने पर मजबूर होते हैं और उनकी अनुपस्थिति पहले से ही कर्मियों की कमी से जूझ रही व्यवस्था पर और दबाव डालती है। काम के अत्यधिक बोझ और उससे होने वाली थकान, शारीरिक स्वास्थ्य को भी खतरे में डाल सकती है, खासतौर पर उन चुनौतीपूर्ण सेवाओं के संदर्भ में जहाँ छोटी सी चूक होने पर कर्मियों को शारीरिक हमलों का सामना कर पड़ सकता है। चुनौतीपूर्ण कामकाजी परिस्थितियों और शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर होने वाले असर के कारण,  काम को लेकर असंतोष पैदा होता है जिसे दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में नौकरी छोड़ कर जाने की ऊंची दर के लिए ज़िम्मेदार माना गया है (ओईसीडी, 2022)।

समर्थन, प्रशिक्षण और कौशल विकास की कमी

बाजार के वश में आ चुकी इन प्रणालियों में कर्मियों की ज़रूरतों के साथ समझौता किया जाता है। लागत में कटौती की वजह से फ्रंटलाइन कर्मियों और उनके प्रबंधक/सुपरवाइजर को सीधे तौर पर आमने-सामने बैठ कर (या ऑनलाइन) बात करने के बहुत कम अवसर मिल पाते हैं। चुनौती भरे माहौल में काम कर पाने के लिए कर्मियों को जिस समर्थन की ज़रुरत होती है, उसका एक मुख्य पहलू निरंतर और पर्याप्त देखरेख भी है। इसके बावजूद, प्रणालियों का बाज़ारीकरण और लागत को घटाने के प्रयासों के चलते, कर्मियों और सुपरवाइजर के बीच की ज़रूरी देखरेख की गतिविधियों के लिए पर्याप्त समय और बजट नहीं दिया जाता है। देखरेख की गतिविधियों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जाना और कर्मियों को मिलने वाले समर्थन के अभाव को ऑस्ट्रेलिया के संदर्भ में भी देखा गया है। इस अध्ययन ने उजागर किया कि सेवा-प्रदाता संस्थाओं द्वारा बहुत ही कम संख्या में प्रबंधकों/सुपरवाइजरों की नियुक्ति की जाती है, और जिन लोगों को नियुक्त किया जाता है उन्हें दी गई अन्य ज़िम्मेदारियों की वजह से उन्हें कर्मियों की देखरेख की गतिविधियों के लिए बहुत कम समय मिल पाता है। कुल मिलाकर बाजार के वश में आ चुकी देखभाल प्रणालियों में काम करने वाले कर्मियों को, बिना देखरेख और प्रशिक्षण के जोखिम-भरी और आपातकालीन स्थितियों से निपटने की पूरी क्षमता के बिना ही काम करना पड़ता है।

काम के समय का बंटवारा

दीर्घकालिक देखभाल की लागत घटाने के लिए आर्थिक सहयोग देने वाली संस्थाओं और प्रबंधन द्वारा किए जाने वाले प्रयासों का एक बड़ा हिस्सा कर्मियों के काम के समय का नियोजन है। जैसा कि पिछले खंड में बताया गया, सूचना-संचार प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल अक्सर काम के समय पर नियंत्रण और निगरानी रखने के लिए किया जाता है। इसके अलावा, बाजार के वश में आ चुकी देखभाल प्रणालियों के तहत, लचीले रोज़गार अनुबंधों और शिफ्ट संचालन की मदद से जिस तरह समय का प्रबंधन किया जाता है, उससे लागत में होने वाली कटौती के साथ-साथ कामकाजी परिस्थिति में भी गिरावट आती है। दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में बड़े स्तर पर अर्धकालिक रोज़गार का उपयोग किया जाता है: बाकि अर्थव्यवस्था के मुकाबले दुगने पैमाने पर। उदाहरण के तौर पर, ओईसीडी (विकसित) देशों में 45% दीर्घकालिक देखभाल कर्मी अर्धकालिक हैं। यूरोपीय संघ में, दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों की शिफ्ट लगातार बदली जाती हैं, जिसके चलते कर्मियों को महसूस होता है कि काम के समय पर उनका खुद का कोई नियंत्रण नहीं है। उन्हें अक्सर बिना किसी पूर्व सूचना के बेवक़्त शिफ्ट करने के लिए कहा जाता है (यूरोफंड, 2020)। सार्वजनिक सेवाओं को वित्तीय मदद देने वाली संस्थाओं द्वारा कर्मियों को सिर्फ देखभाल में लगने वाले समय के लिए ही भुगतान करने के बढ़ते रुझान ने कई तरह के असुरक्षित संविदा रोज़गार को जन्म दिया है। जहाँ देखभाल सेवाओं का वैयक्तिकरण हुआ है वहां लागत घटाने के लिए रोज़गार में लचीलापन लाने का दबाव और बढ़ा है। वैयक्तिकरण का मतलब है कि सेवा किस समय दी जाती है, इससे जुड़ी उपभोक्ताओं की पसंद-नापसंद को देखभाल प्रणाली के केंद्र में रखा जाना, जो काम के समय के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगता है।

 

इस तरह के बाज़ारीकरण के माहौल में कम-अवधी, अर्धकालिक, राहत या शुन्य-घंटे के अनुबंध (जिनके तहत नियोक्ता किसी भी न्यूनतम समय का रोज़गार देने के लिए बाध्य नहीं होते हैं) वाले रोज़गार का बढ़ते पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। वित्तीय मदद देने वाली संस्थाओं और सेवा-उपयोगकर्ताओं की लचीलेपन और कम लागत की बढ़ती मांग की वजह से इस तरह के अनुबंधों वाले रोज़गार का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है जिसके चलते इसकी कोई गारंटी नहीं टोटी कि कर्मियों को दिया जाने वाला प्रति घंटा वेतन जीवन निर्वाह के लिए काफी होगा। मिलने वाले काम के घंटों का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है जिसकी वजह से कर्मी ‘काम के घंटे के भूखे’ रहते हैं। अर्धकालिक काम के तहत भी ‘घंटों की गरीबी’ देखी जाती है। यूरोपीय संघ के दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों के एक हिस्से (गैर-आवासीय दीर्घकालिक देखभाल सेवाओं में 30%, और आवासीय सेवाओं में 20%) का कहना है कि पूर्णकालिक काम न मिलने की वजह से ही उन्हें अर्धकालिक काम लेने पर मजबूर होना पड़ता है (यूरोफाउंड, 2020)।        

 

देखभाल सेवा क्षेत्र में नए तरह के प्लेटफॉर्म कार्य का आगमन

देखभाल कार्य को अब डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से भी आयोजित किया जा सकता है, जहाँ सेवा-उपयोगकर्ता कई स्वतंत्र, अनियमित देखभाल कर्मियों में से किसी एक का चुनाव कर सकते हैं। ऑस्ट्रेलिया में हाल के कुछ सालों में इस तरह के अनियमित प्लेटफॉर्म-आधारित देखभाल कर्मियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। यह डिजिटल प्लेटफॉर्म देखभाल कर्मियों और सेवा-उपयोगकर्ताओं के बीच एक इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के रूप में काम करने में नियोक्ताओं की मदद करते हैं। बाज़ारीकरण के वश में आ चुकी देखभाल प्रणालियों के तहत, कर्मियों को बढ़ते जोखिम और अव्यवस्थित काम के घंटों का सामना करना पड़ता है। देखभाल काम के स्वास्थ्य-केंद्र के बजाय निजी घरों में ज़्यादा किए जाने के कारण देखभाल का वैयक्तिकरण होता है और कर्मी अलग-थलग सा महसूस करने लगते हैं। क्योंकि वित्तीय सहायता देने वाली संस्थाएं देखभाल सेवाओं के पैकेज लिए पूरा पैसा नहीं देती हैं इसलिए सेवा-उपयोगकर्ता वेतन में होने वाली बढ़ोत्तरी का पूरा भुगतान नहीं कर पाते हैं, जिसकी वजह से कर्मियों की आमदनी प्रभावित होती है। इस तरह के काम में भी वे सभी समस्याएं देखी जा सकती हैं जो अन्य तरह के असुरक्षित रोज़गार में मौजूद होती हैं, जैसे आखिरी वक़्त पर काम कैंसिल किया जाना या छोटी शिफ्ट/अवधी वाले काम जिनके लिए आने-जाने में लंबा समय और काफी खर्च लगता है। कर्मियों की शिफ्ट का नियोजन अब फ़ोन ऍप के ज़रिए किया जाने लगा है जिसका मतलब है कि मांग के हिसाब से प्लेटफॉर्म द्वारा शिफ्ट में मनचाहे बदलाव किए जा सकते हैं।

प्रवासी देखभाल कर्मी

देखभाल क्षेत्र में विभिन्न श्रेणियों के कर्मियों द्वारा अनुभव की जाने वाली असुरक्षा को समझने के लिए प्रवासी कर्मियों की स्थिति की ओर ध्यान देना ज़रूरी है। प्रवासी कर्मियों द्वारा दी जाने वाली देखभाल सेवाएं अमीर देशों के दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों में मौजूद कमियों को पूरा करती हैं। यहाँ भी, प्रवासी कर्मी ज़्यादातर महिलाएं होती हैं। ज़्यादातर प्रवास आर्थिक कारणों से या अपने देश में निचले स्तर की कामकाजी परिस्थिति या नौकरी के आभाव में किया जाता है। जैसा कि भारत और फिजी के केस अध्ययन में देखा गया, प्रवासी कर्मी अमीर और विकसित देशों में किए जाने वाले वेतन-सहित और वेतन-रहित देखभाल कार्य में योगदान देते हैं और इन देशों में देखभाल कार्य के मूल्य को कम आंके जाने की वजह से पैदा हुई कर्मियों की कमी को पूरा करते हैं।

 

प्रवासी कर्मियों को कई प्रकार की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मानव तस्करी और दुर्व्यवहार का खतरा हमेशा बना रहता है। जिन देशों से कर्मियों का पलायन होता है, उनकी दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों में कर्मियों की कमी या तो पैदा हो सकती है या मौजूदा कमी और ज़्यादा गंभीर रूप ले सकती है। इन देशों की आबादियां आने वाले दशकों में जैसे-जैसे बूढ़ी होती जाती हैं, इनसे होने वाला पलायन इनकी प्रणालियों को और कमज़ोर बनाएगा। लिंग-पहचान से जुड़ी चुनौतियों के अलावा, प्रवासी कर्मी नस्ल, जातीयता और राष्ट्रीयता के आधार पर भी भेदभाव का सामना करते हैं। हो सकता है कि वे निचले आर्थिक वर्ग से आते हों और प्रवासी होने के कारण उन्हें अपने नए देश में मज़दूर, सामाजिक, कल्याण और राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा जाए।

 

फिजी और भारत के केस अध्ययन दर्शाते हैं कि यह उभरती ‘देखभाल आपूर्ति श्रृंखलाएं’ इन तथाकथित कर्मियों को भेजने वाले देशों’ के लिए भी घाटे का सौदा साबित होती हैं। उदाहरण के तौर पर, हालांकि भारत जैसे देशों को दीर्घकालिक देखभाल प्रवासी कर्मियों द्वारा घर वापस भेजे गए पैसों से कुछ फायदा ज़रूर होता है, लेकिन बड़ी संख्या में इस तरह के कर्मियों के पलायन की वजह से घरेलू व्यवस्था में कर्मियों की कमी पैदा हो जाती है।

अनुचित कामकाजी परिस्थितियां और निचली गुणवत्ता वाली देखभाल

बाज़ारीकरण के वश में आ चुकी देखभाल प्रणालियों में देखा जाने वाला वेतन का निचला स्तर और रोज़गार की असुरक्षा की वजह से कई सेवाओं में नौकरी छोड़कर जाने की ऊंची दर और कमियों की बड़े पैमाने पर कमी देखी जाती है, जिसका असर सरकारी बजट पर भी पड़ता है क्योंकि नए कर्मियों की भर्ती करने और उन्हें प्रशिक्षण देने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। निजीकृत सेवाओं के मामले में, निचली लागत या बजट में कटौती किए जाने का सीधा प्रभाव देखभाल की गुणवत्ता पर पड़ता है। देखभाल कर्मी उस तरह की सेवाएं नहीं दे पाते हैं जिनकी कल्पना विकलांग-अधिकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता “देखभाल के लिए नकद राशि” योजनाओं के तहत करते हैं।

 

कर्मियों की कमी और सेवा की गुणवत्ता के बीच का संबंध काफी गहरा है। उदाहरण के तौर पर, कोविड-19 महामारी के दौरान लागू किए गए लॉकडाउन के दौरान आवासीय दीर्घकालिक देखभाल केंद्रों में कर्मियों और मरीज़ों के अच्छे अनुपात की वजह से मृत्यु दर काफी कम थी। इसका कारण था कि कर्मियों को एक सेवा-उपयोगकर्ताओं से दूसरे के पास बहुत ज़्यादा आने-जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी जिससे संक्रमण का खतरा कम था। लेकिन, महामारी के दौरान, वेतन के निचले स्तर और अन्य लाभों के अभाव की वजह से कई असुरक्षित आबादियों में संक्रमण का स्तर काफी ज़्यादा था। उदाहरण के तौर पर, यूके में निचले वेतन और असुरक्षित अनुबंधों पर काम करने वाले कर्मियों के बीच वायरस का संक्रमण ज़्यादार निजी नियोक्ताओं के लिए काम करने वाले उन कर्मियों के ज़रिए फैला जो संक्रमण होने पर इसकी जानकारी नहीं दे रहे थे या जिन्हें संक्रमण के लक्षण नहीं थे। संक्रमित होने पर इसके बारे में नियोक्ताओं को जानकारी न देने का कारण था कि इन कर्मियों को वेतन-सहित छुट्टी की सुविधा नहीं दी जा रही थी। पिछले कुछ सालों में, मुनाफा कमाने के लिए निजी प्रदाताओं ने बीमार होने पर कर्मियों को दिए जाने वाले लाभों में कटौती करना शुरू किया है। कुछ मामलों में देखभाल कर्मियों को गुज़ारा करने के लिए एक से अधिक नौकरियां भी करनी पड़ती है। कोविड-19 के दौरान इसका परिणाम यह हुआ कि लगातार एक स्वास्थ्य केंद्र से दूसरे केंद्र आने-जाने के कारण कर्मियों के ज़रिए संक्रमण समाज के सबसे कमज़ोर तबके (बुज़ुर्गों) में फ़ैलता चला गया।

कोविड-19 और दीर्घकालिक देखभाल

कोविड-19 संकट ने दुनिया भर में दीर्घकालिक देखभाल को लेकर कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर किया। कई सालों से बजट में की जा रही कटौती की वजह से राष्ट्रीय प्रणालियां महामारी से पैदा हुई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी, जैसे संक्रमण की प्रभावी रोकथाम और नियंत्रण, पीपीई की लागत वहन कर पाना, कर्मियों को प्रशिक्षण दे पाना और बीमार होने पर कर्मियों की अनुपस्थिति से निपट पाना। कोविड-19 की वजह से होने वाली ज़्यादातर मौते ज़्यादा उम्र वाले व्यक्तियों में थी - 93% मौतें 60-65 वर्ष की उम्र वालों के बीच और 58% 80-85 वर्ष की उम्र वालों के बीच थी (ओईसीडी, 2021ए)।

 

इनका एक कारण बुजुर्गों की कमज़ोर स्वास्थ्य स्थिति ज़रूर थी, लेकिन अब यह साफ हो गया है कि देखभाल केंद्रों की व्यवस्था भी इसके लिए ज़िम्मदार थी। क्षमता से ज़्यादा मरीज़ों की संख्या और एक कमरे में कई व्यक्तियों को रखा जाना उन आवासीय दीर्घकालिक देखभाल केंद्रों के लिए काफी आम था जिनमें औसत से ज़्यादा मृत्यु दर देखी गई। इसी से जुड़ा हुआ एक और कारण था निचली गुणवत्ता वाले उपकरण क्योंकि, जैसा कि इस अध्ययन में पाया गया, महामारी की शुरुआत में सिर्फ आधे देशों में ही संक्रमण के नियंत्रण के लिए दिशानिर्देश जारी किए गए थे (ओईसीडी, 2021ए)।

 

माहमारी का रोज़गार व्यवस्था पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। दीर्घकालिक देखभाल पाने वाले व्यक्तियों में कोविड-19 की वजह से बड़े पैमाने पर होने वाली मौतों के लिए कई विश्लेषकों ने देखभाल सेवाओं और कर्मियों के योगदान को कम करके आंकने की प्रवृत्ति को दोषी ठहराया है। दीर्घकालिक देखभाल को और इससे जुड़े कर्मियों को दी जाने वाली निचली प्राथमिकता का एक उदाहरण था पीपीई वितरण और कर्मियों की चिकित्सीय जांच में की गई देरी। कोलंबिया और चेक गणराज्य जैसे देशों में, कर्मियों को पीपीई खरीदने के लिए खुद के पैसे खर्च करने पड़े (ओईसीडी, 2021)।

 

देखभाल कर्मियों का अनुपात

बजट की कमी का सामना कर रही अधिकतर दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियां में लागत घटाने के चक्कर में फ्रंटलाइन कर्मियों की संख्या में कटौती की गई थी। कुछ अध्ययनों में पाया गया कि कर्मियों के कम अनुपात और पुरानी संरचना वाले देखभाल केंद्रों में कोविड-19 मृत्यु दर औसत से कहीं ज़्यादा थी। इसके अलावा कुछ देखभाल केंद्रों में कोविड-19 मामलों की पहचान करने और संक्रमित मरीज़ों को अलग करने का प्रशिक्षण काफी देरी से दिया गया।

 

इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि करीब सभी ओईसीडी देशों को कर्मियों के संख्या में मौजूद इस कमी को भरने के लिए तात्कालिक कदम उठाने पड़े। दीर्घकालिक देखभाल केंद्रों को कर्मियों की भर्ती करने के लिए अतिरिक्त बजटीय सहायता भी दी गई, जिसके तहत सेवानिवृत्त, या बेरोज़गार या पढाई पूरी कर रहे देखभाल कर्मियों को भर्ती करने की छूट भी दी गई। इसके अलावा, अत्यधिक दबाव के माहौल में काम करने वाले कर्मियों को प्रोत्साहित करने के लिए एक-बारी अतिरिक्त भुगतान/बोनस भी दिया गया। करीब 40% ओईसीडी देशों ने अपने कर्मियों को उनके असाधारण योगदान के लिए एक-बारी बोनस दिए। कुछ मुट्ठी भर देशों ने अपने कर्मियों के वेतन में स्थाई तौर पर इज़ाफ़ा भी किया (जर्मनी, चेक गणराज्य, कोरिया और फ्रांस)। प्रवासी कर्मियों से जुड़े कुछ कदम भी उठाए गए, जैसे विदेशी दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों के वीज़ा की अवधी बढ़ाया जाना। सिर्फ कोलंबिया, ग्रीस और लातविया ने ही कोई भी विशेष कदम नहीं उठाया (ओईसीडी, 2021ए)।

 

 

बीमार होने पर कर्मियों की अनुपस्थिति

कर्मियों की आवाजाही की वजह से संक्रमण के फैलने के पीछे का एक कारण था कि कई कर्मी एक से अधिक नौकरियां कर रहे थे। ओईसीडी देशों में, 45% कर्मी अर्धकालिक हैं, और इनमें से कई कर्मियों को गुज़ारा चलाने के लिए एक से ज़्यादा नौकरियां करनी पड़ती हैं। गैर-देखभाल कर्मियों के मुकाबले दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों की बिमारी के कारण छुट्टी लेने की संभावना कहीं ज़्यादा थी या महामारी के पहले के मुकाबले महामारी के दौरान उनके बीमार पड़ने की संभावना कहीं ज़्यादा थी। बीमारी की वजह से कर्मियों की अनुपस्थिति की वजह से सेवा उपलब्ध करा पाना या कर्मियों को पर्याप्त प्रशिक्षण दे पाना और ज़्यादा मुश्किल साबित हुआ। पहले से ही अपर्याप्त कर्मियों के अनुपात के और घटने की वजह से काम के लिए उपस्थित कर्मियों पर काम का बोझ और बढ़ गया, जिसकी वजह से कर्मियों को एक केंद्र से दूसरे केंद्र तक और ज़्यादा आना-जाना पड़ा, जिसके चलते इन केंद्रों में संक्रमण और बढ़ गया (ओईसीडी, 2021ए)।

 

बीमारी की वजह से छुट्टी लेने पर कर्मियों को कम भुगतान या कोई भी भुगतान नहीं किए जाने की वजह से कर्मियों को होने वाले नुकसान से बचने के लिए ही संक्रमित होने पर भी इसके बारे में बिना किसी को बताए काम करते रहने पर मजबूर होना पड़ा (ओईसीडी, 2021ए)। संक्रमित होने पर असुरक्षा की स्थिति उन कर्मियों के लिए और भी बहुत ज़्यादा थी जिन्हें शुन्य-घंटे के अनुबंध के आधार पर काम कर रखा गया था। इस तरह के अनुबंध पर रखे जाने के कारण बीमार होने पर उन्हें कोई भी भुगतान नहीं किया जाता है। यूके में, जहाँ बीमार होने पर छुट्टी लेने पर वेतन का भुगतान किया जाता है, वहां भी कई कर्मियों को, खासतौर पर निजी दीर्घकालिक देखभाल केंद्रों के कर्मियों को सिर्फ कानूनी रूप से अनिवार्य भुगतान ही किया गया, जो वैश्विक उत्तर के सभी देशों में सबसे निचले स्तर का भुगतान है। इन मुद्दों का संज्ञान कई संस्थाओं (जैसे, ओईसीडी) और मज़दूर संगठनों के अलावा अकादमिक शोधकर्ताओं (एलसन, 2020) ने भी लिया है जिनका कहना है कि कर्मियों के अनुपस्थित रहने पर काम के प्रबंधन और बीमार होने पर व्यवस्थित रूप से वेतन-सहित छुट्टी दिए जाने की मांग को मज़दूर संगठनों और निति-निर्मातों के अजेंडा पर एक बार फिर से लाने की ज़रुरत है।

 

कोविड-19 के बाद, पीएसई के साथी संगठनों ने मिलकर दक्षिण एशिया में सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों के बेहतर स्वास्थ्य और पीपीई सुविधाओं के लिए अभियान चलाया। इस अभियान के लिए उन्होंने आईएलओ के सी149 नर्स कर्मचारी करार का इस्तेमाल किया, जिसके तहत करार को अपनाने वाले सभी राज्य नर्स कर्मचारियों के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण सुनिश्चित करने और रोज़गार तथा कामकाजी परिस्थितियों में (जिनमें तरक्की और वेतन में बढ़ोत्तरी शामिल है) सुधार लाने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। क्षेत्रीय स्तर पर, पीएसआई आईएलओ के इस करार को अपनाए जाने का अभियान चला रहा है और इसके लिए ज़रूरी रणनीतियां विकसित की गई हैं।

 

कोविड-19 के दौरान लगभग सभी देशों द्वारा अपनी सीमाएं बंद कर लेने की वजह से प्रवासी कर्मी अपने परिवारों से कट गए (डब्ल्यूएचओ, 2020)। जैसा कि हमारे केस अध्ययनों से साफ़ हो जाता है, वैश्विक उत्तर के देशों की दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियां कोविड और अन्य बाहरी झटकों से काफी हद तक प्रभावित हुई हैं और अब प्रवासी कर्मियों पर और भी ज़्यादा निर्भर हैं। यह प्रवासी कर्मियों की कामकाजी परिस्थिति और अधिकारों के संबंध में कई सवाल खड़े करता है।

 

भविष्य के लिए, दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में कर्मियों के अभाव, कामकाजी परिस्थिति और व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा के बारे में जागरूकता और अनुपालन के मुद्दों को प्राथमिकता दी जा रही है। कम से कम 30 देशों ने पीपीई की उपलब्धता बेहतर बनाने के लिए नीतियां विकसित की हैं और 24 देशों ने देखभाल केंद्रों में रहने वाले व्यक्तियों और कर्मियों की चिकित्सीय जांच को प्राथमिकता देना शुरू किया है। कम से कम 26 ओईसीडी देशों में कर्मियों की संख्या बढ़ाने के लिए नीतियां मौजूद हैं जिसमें नए कर्मियों और छात्रों की भर्ती के लिए बजटीय सहयोग भी शामिल है। स्वच्छता, खासतौर पर कर्मियों के प्रशिक्षण पर अब ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है (ओईसीडी, 2021ए)।

 

यह देखते हुए कि कोविड-19 अब भी एक खतरा बना हुआ है, मज़दूर संगठनों के कार्यकर्ताओं और पीएसआई के साथी संगठनों को इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि स्वास्थ्य संस्थाएं बिमारी की वजह से कर्मियों की अनुपस्तथिति और काम के भार से किस तरह निपट रही हैं। बीमारी की वजह से कर्मियों की अनुपस्थिति से जुड़ी नीतियों पर ज़ोर देने की ज़रुरत है क्योंकि हाल में देखने में आया है कि अनुपस्थिति से निपटने के लिए बलपूर्वक और दंडात्मक तरीकों का इस्तेमाल किया जाने लगा है जिनके तहत सिर्फ गैर-ज़रूरी छुट्टियों पर ध्यान दिया जा रहा है। इन तरीकों की वजह से कर्मियों को बीमार होने पर भी काम करना पड़ता है, जो स्वास्थ्य संकटों के समय और ज़्यादा समस्या पैदा कर सकता है।               

कर्मियों में संगठन का अभाव

देखभाल कर्मियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों की और सामूहिक सौदेबाज़ी जैसे प्रभावी सामाजिक संवाद प्रावधानों की मौजूदगी न सिर्फ देखभाल कर्मियों का वेतन का स्तर और कामकाजी परिस्थितियां निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है (आईएलओ, 2018) बल्कि बेहतर दीर्घकालिक देखभाल सुविधाओं को भी बढ़ावा देती है।

 

बाज़ारीकरण के वश में आ चुकी देखभाल प्रणालियों में मज़दूर संगठनों का प्रभाव बहुत सीमित होता है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा सीधे नौकरी दिए जाने के बजाय काम को इस तरह से ठेके पर दे दिया जाता है जहाँ सामूहिक सौदेबाजी बहुत कम होती है। निजी और स्वयंसेवी क्षेत्र की दीर्घकालिक देखभाल सेवा संस्थाओं में मज़दूर संगठनों की आमतौर पर कोई मौजूदगी नहीं रही है। संगठन-विरोधी नज़रिए के पीछे यह सोच होती है कि हड़ताल और अन्य तरह की कार्रवाई के कारण सेवाओं में रुकावट आ सकती है या निजी प्रदाताओं के मामले में, मुनाफा कम हो सकता है। इसके अलावा निजी और स्वयंसेवी संस्थाओं में काम करने वाले दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों को संगठित करने में कुछ और चुनौतियां भी पेश आती हैं। इन क्षेत्रों में संगठन से जुड़ने की परंपरा न होने की वजह से बाकी क्षेत्रों के मुकाबले यहाँ संगठन से जुड़ने वाले कार्यकताओं की संख्या भी कम होती है। ‘कारखाने के दरवाज़े’ या सार्वजनिक क्षेत्र की तरह, कोई स्कूल, अस्पताल या कार्यालय न होने की वजह से कर्मियों से सामूहिक रूप से बात करना भी मुश्किल होता है। दीर्घकालिक देखभाल कर्मी अर्धकालिक रूप से, बंटी हुई शिफ्ट में, और कभी-कभी अकेले भी समुदायों में या लोगों के घरों पर काम करते हैं जिसकी वजह से उनसे संपर्क करना मुश्किल होता है। कई बार दीर्घकालिक देखभाल कर्मी हड़ताल जैसी कार्रवाई के सेवा-उपयोगकर्ता पर होने वाले असर की वजह से संगठन से जुड़ने में हिचकिचाते हैं।

 

जिन निजी और गैर-लाभकारी प्रदाताओं के कर्मी संगठन से जुड़े हुए होते हैं, वहां आपूर्ति-श्रृंखला और संसाधन-निर्भरता की वजह से प्रभावी सामूहिक सौदेबाज़ी कर पाने की समभावनाएं काफी सीमित होती हैं। र, क्योंकि सरकार द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता बढ़ती महंगाई और लागत के अनुरूप नहीं होती है इसलिए जिन प्रदाताओं को ठेके दिए जाते हैं उनके साथ सामूहिक सौदेबाज़ी के ज़रिए सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मियों जितना वेतन और कामकाजी परिस्थितियां हासिल कर पाने की संभावना कम होती है।

 

सामूहिक सौदेबाजी की इन सीमित संभावनाओं के पीछे कई कारण होते हैं:-

●      सबसे पहले, सार्वजनिक क्षेत्र के विपरीत, सामूहीक सौदेबाज़ी संस्था के स्तर पर की जा सकती हैं जो राष्ट्रीय समझौते के तहत नहीं आती है।

●      दूसरा, संस्था के स्तर पर, सरकार ‘तीसरे नियोक्ता’ की भूमिका निभाती है, क्योंकि सीधे तौर पर मोलभाव में शामिल नहीं होने के बावजूद सरकार द्वारा तय की गई बजटीय सहायता बहुत हद तक कर्मियों को दिए जाने वाले वेतन और लाभ तय करती है। इसके चलते, मोलभाव की इस विकेन्द्रीकृत प्रक्रिया में मज़दूर संगठन बजटीय आवंटन तय करने वाली सरकारी संस्थाओं के साथ न सीधे तौर पर मोलभाव कर सकते हैं न उन्हें जवाबदेह ही ठहरा सकते हैं। यही नहीं, इसकी वजह से कम वेतन के लिए प्रदाताओं को ज़िम्मेदार ठहरना और कर्मियों को सामूहिक कार्रवाई के लिए संगठित करना भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

सेवाओं के वैयक्तिकरण का भी सामूहिक सौदेबाज़ी और कर्मियों को संगठित करने की प्रक्रिया पर गहरा असर पड़ता है।

 

हमारे केस अध्ययन रेखांकित करते हैं कि किस तरह सामूहिक सौदेबाज़ी उन दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों को भी सुरक्षा उपलब्ध करा सकती है जिन तक पहुँचाना और जिन्हें संगठित करना बहुत मुश्किल होता है। जैसे, फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया में, संगठनों द्वारा मोलभाव के ज़रिए पूरे क्षेत्र के लिए तय किए गए समझौते उन दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों पर भी लागू होते हैं जो इन संगठनों के सदस्य नहीं हैं। स्कॉटलैंड में दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र के लिए भी पूरे क्षेत्र के लिए सामूहिक सौदेबाज़ी की प्रक्रिया लागू करने के प्रस्ताव पर चर्चा चल रही है। चिली में, संवैधानिक बदलावों और अधिकार-आधारित दीर्घकालिक देखभाल प्रणाली के लिए संघर्ष कर रहे संगठन, मज़दूर अधिकारों को अपने अभियानों के केंद्र में रख रहे हैं।

 

हमारे केस अध्ययन पीएसआई के साथी संगठनों के पास सभी ज़रूरी संसाधन (जैसे बाजार-संबंधी समझ) होने के महत्व की ओर इशारा करते हैं। इनमें फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और स्कॉटलैंड जैसे वैश्विक उत्तर के देश भी शामिल हैं जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गतिविधियों में ज़्यादा पारदर्शिता लाने की क्षमता रखते हैं। लेकिन भारत का केस अध्ययन और ज़्यादा बुनियादी संसाधनों के महत्व को दर्शाता है, जैसे दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में किस परकार के प्रदाता मौजूद हैं और वे काम और रोज़गार को किस तरह से नियोजित करते हैं। इसी के साथ, भारत का केस अध्ययन यह भी दर्शाता है कि वैश्विक दक्षिण के संगठनों को दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों के बारे में बुनियादी जानकारी की ज़रुरत है, जैसे इस क्षेत्र में कितने और किस तरह के (महिला/पुरुष, स्थानीय/प्रवासी, इत्यादि) कर्मी काम करते हैं, उनके अपने नियोक्ताओं के साथ रोज़गार संबंध कितने औपचारिक/अनौपचारिक हैं, इत्यादि।        

        

संगठनों के लिए सही रणनीति अपनाना बहुत ज़रूरी है और साथ भी दीर्घकालिक देखभाल के सार्वजनिक प्रबंधन के लिए लगातार पैरवी करते रहना भी। फ्रांस में ओरपिया जैसी कंपनियों द्वारा जनता के पैसों की लूट के खुलासे ने इसमें बड़ा योगदान दिया है। इस लूट की वजह से देखी जाने वाली बुज़ुर्गों की दयनीय स्थिति, दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों की बुरी कामकाजी परिस्थिति और दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में काम करने के प्रति कर्मियों की अनिच्छा ने लोगों की आँखें खोल दी हैं। सीएफडिटी ने दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों द्वारा दी जाने वाली सेवाओं के सामाजिक-आर्थिक योगदान के प्रति सामुदायिक और राजनीतिक जागरूकता बढ़ाए जाने की पैरवी करते हुए, इस बात पर ज़ोर दिया है कि दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र के लिए बेहतर बजटीय आवंटन को, ज़्यादा कर्मियों की भर्ती को, बेहतर वेतन को और कौशल विकास को, बुजुर्गों की गरिमापूर्ण देखभाल में किए गए निवेश के रूप में देखा जाना चाहिए (सीएफडिटी 2019।

 

कोविड-19 संकट के दौरान सीखे गए सबक संगठनों द्वारा दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों को एकजुट करने और सामूहिक सौदेबाज़ी की प्रक्रिया के लिए भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:

●      देखभाल कर्मियों का बेहतर अनुपात निचली संक्रमण और मृत्यु दर से जुड़ा हुआ है;

●      कर्मियों की एक जगह से दूसरी जगह जाने की ज़रूरत को घटा कर (कर्मियों के अनुपात को बढ़ाने के ज़रिए) संक्रमण की संभावना को कम किया जा सकता है;   

●      कर्मियों की कमी का समाधान बेहतर भर्ती और रोज़गार सुरक्षा है, खासतौर पर बेहतर वेतन और कामकाजी परिस्थितियां;

●      वेतन में सुधार की शुरुआत महामारी के दौरान दिए गए बोनस को स्थायी बनाने के ज़रिए की जानी चाहिए।  

●      दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों के लिए उचित प्रशिक्षण और सुरक्षा मापदंड सुनिश्चित किए जाए और उनके कार्यान्वयन पर नज़र रखी जाए; 

●      दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को प्राथमिकता दी जाए और प्रबंधकों को मनोवैज्ञानिक और शारीरिक देखरेख पर प्रशिक्षित किया जाए;

●      कोविड के दीर्घकालिक परिणामों का सामना कर रहे कर्मियों की ज़रूरतों को ध्यान में रखा जाए (ओईसीडी, 2020; ओईसीडी, 2021बी)।

आयोजन की प्रमुख चुनौतियाँ

गरिमापूर्ण काम और गुणवत्ता वाली दीर्घकालिक देखभाल हासिल करने के लिए संगठनों के लिए रणनीतियां

सार्वजनिक क्षेत्र में सामूहिक सौदेबाज़ी

दीर्घकालिक देखभाल से जुड़े कुछ मुद्दे आने वाले सालों में कर्मियों को संगठित करने के काम को और चुनौतीपूर्ण बना देंगे, जैसे संगठनों की कर्मियों को एकजुट कर पाने की क्षमता पर हमला। मज़दूरों को संगठित कर पाने और अपने सदस्यों के हितों की रक्षा कर पाने की क्षमता को लेकर मज़दूर संगठनों पर कई दशकों से दबाव बना हुआ है। इन हमलों के पीछे आर्थिक और राजनीतिक परिस्थिति और बदलता मज़दूर बाजार रहा है। इस संदर्भ में, सार्वजनिक क्षेत्र के मज़दूर संगठनों को अपनी ताकत, सदस्यता और संगठित करने की क्षमता के लिए पारंपरिक रूप से ज़्यादा जुझारू माना गया है।

 

इसके बावजूद, सार्वजनिक क्षेत्र के मज़दूर संगठनों को भी दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों को संगठित करने और उनका प्रतिनिधित्व कर पाने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सबसे पहले, दुनिया के कई देशों में संगठनों के प्रभाव और उनकी ताकत में आई गिरावट से सार्वजनिक क्षेत्र के मज़दूर संगठन भी अनछुए नहीं रहे हैं। वैश्विक वित्तीय संकट की ओर ले जाने वाली कई नव-उदारवादी नीतियों ने पिछले दस सालों में सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों को कमज़ोर बनाने का काम किया है। यह वैश्विक वित्तीय संकट और इसके बहाने लागू की गई बजट कटौती की नीतियों की आड़ में सरकारों ने समाज और मज़दूर संगठनों पर आवारा बाज़ारवाद की विचारधारा का शिकंजा कस दिया है क्योंकि संगठन और सामूहिक सौदेबाज़ी की प्रक्रिया इस विचारधारा के सबसे बड़े दुश्मन हैं। कई देशों में इस वैश्विक वित्तीय संकट को सरकारी कर्ज के संकट के रूप में देखा गया है, और सरकारी खर्च के लिए मज़दूर संगठनों और उनके सदस्यों को (विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में) दोषी ठहराने की कोशिश की गई है।

 

इस लफ़ाज़ी के चलते, सार्वजनिक क्षेत्र में सामूहिक सौदेबाज़ी और संगठन को मिलने वाले संरक्षण से जुड़ी नीतियों में कई बदलाव किए गए हैं जिनका उद्देश्य सरकार के बजट में बड़े पैमाने पर कटौती करना है। उदाहरण के तौर पर, यूरोपीय संघ में, निति में किए गए इन बदलावों और नौकरियां जाने की वजह से, सामूहिक सौदेबाज़ी के दायरे में आने वाले कर्मचारियों का अनुपात, यानी जिनकी रोज़गार की शर्तें सामूहिक मोलभाव की प्रक्रिया के ज़रिए तहत तय की जाती है, उनका अनुपात काफी कम हुआ है।

 

इसके साथ, यूरोपीय संघ के देशों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे वेतनों को महंगाई जितना न बढ़ाएं और संगठनों के साथ, रोज़गार सुरक्षा के एवज़ में रोज़गार की नियमों और शर्तों में कटौती को (अस्थायी तौर पर) स्वीकार करने के लिए मोलभाव करें। यूरोपीय संघ में इस तरह के दबाव को उस स्तर भी देखा जा सकता है जिस स्तर पर ज़्यादातर दीर्घकालिक देखभाल सेवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं, यानी स्थानीय सरकारों के स्तर पर। राष्ट्रीय सरकारों द्वारा स्थानीय सरकारों पर भी बजटीय कटौती की नीतियां लागू की जा रही हैं।

 

उत्तरी अमेरिका में भी संगठनों पर हमले वैश्विक वित्तीय संकट के बाद ही शुरू हुए, जिसके तहत अमेरिका और कनाडा में (जहाँ अमेरिका या यूरोपीय संघ जीतना गहरा वित्तीय संकट नहीं देखा गया) जहाँ मज़दूर आंदोलन के खिलाफ पहले से ही शत्रुता का माहौल मौजूद था, वहां इस भावना को और हवा दी गई। वैश्विक वित्तीय संकट ने नव-उदारवादियों के लिए बजट घटाने, सरकारी कर्मचारियों की संख्या घटाने और सार्वजनिक संपत्ति के निजीकरण की मांग करने के रास्ते खोल दिए, क्योंकि संकट का दोष सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों और उनके सदस्यों के माथे पर मढ़ा गया। इन दोनों देशों में, पेंशन और वेतन पर हमला किया गया जिसके चलते राज्य/क्षेत्रीय सरकारों ने पेंशन और स्वास्थ्य लाभों पर मोलभाव करने के अधिकार को वापस लेने और वेतन वृद्धि पर बंदिशें लगाने की कोशिश की। मज़दूर संगठनों और उनके सदस्यों पर किए गए इन हमलों का एक लिंग-संबंधी पहलू भी था - इनका खामियाज़ा उन पेशों को ज़्यादा भुगतना पड़ा जिनमें महिलाओं की बहुतायत है, जैसे बुजुर्गो की देखभाल।   

संसाधनों के लिए स्पर्धा

सबसे पहले, जहाँ मज़दूर संगठन पारंपरिक रूप से मजबूत रहे हैं और/या जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र में मजबूत संगठनों का इतिहास रहा है, वहां भी उनकी कानूनी पहुँच काफी सीमित है और इसके चलते, सार्वजनिक दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों को प्रभावित कर पाने की उनकी क्षमता भी। कई सारे देश, अपनी दीर्घकालिक देखभाल सेवाओं के एक बड़े हिस्से को स्वयंसेवी और निजी संस्थाओं को ठेके पर दे देते हैं, जहाँ संगठनों की मौजूदगी बहुत कम होती है।    

 

निजी और गैर-लाभकारी प्रदाताओं को सेवाएं ठेके पर दिए जाने और सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों की कमज़ोरी का मतलब है कि संगठनों को अपने संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर कुछ मुश्किल फैसले लेने होंगे। सार्वजनिक क्षेत्र के संगठन सार्वजनिक, निजी और गैर-लाभकारी क्षेत्रों के कर्मियों को संगठित करने के प्रयास कर सकते हैं। जहाँ दीर्घकालिक देखभाल कर्मी सार्वजनिक क्षेत्र में काम करते हैं वहां संगठनों को खुद को मजबूत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। जहाँ देखभाल प्रणालियां बाजार के अधीन आ चुकी हैं वहां संगठनों का प्रभाव काफी सीमित है क्योंकि पारंपरिक रूप से लाभकारी और गैर-लाभकारी प्रदाताओं के कर्मियों में संगठन का स्तर काफी कम रहा है। इसके कारण संगठनों के भीतर, अलग-अलग क्षेत्रों के बीच और देखभाल सेवाओं व अन्य सार्वजनिक सेवाओं के बीच संसाधनों के बंटवारे को लेकर स्पर्धा रहेगी।     

ठेके पर दी गई सेवाओं में संगठन-विरोधी रवैया

संगठन-विरोधी रवैये के पीछे यह सोच होती है कि हड़ताल और अन्य तरह की कार्रवाई के कारण सेवाओं में रुकावट आ सकती है या निजी प्रदाताओं के मामले में, मुनाफा घाट सकता है। निजी क्षेत्र की दीर्घकालिक देखभाल कंपनियों के मामले में संगठन के स्तर पर बहुत ही कम काम हुआ है क्योंकि बहुत कम प्रदाता मज़दूर संगठनों को मान्यता देते हैं। जहाँ-जहाँ संगठन मौजूद हैं, वहां उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कुछ प्रदाता बहुत ज़्यादा मुनाफा नहीं कमाते हैं जिसकी वजह से वेतन पर मोलभाव करना मुश्किल होता है। अन्य मामलों में, जहाँ निजी पूंजी का निवेश किया जाता है, वहां प्रदाताओं को मिलने वाली वित्तीय राशि में पारदर्शिता की कमी की वजह से भी मोलभाव करना मुश्किल हो जाता है।

 

गैर-लाभकारी प्रदाताओं के कर्मियों को संगठित करने में कुछ और चुनौतियां पेश आती हैं। गैर-लाभकारी प्रदाताओं द्वारा कुछ मूल्यों और उद्देश्यों को तथा कुछ मुवक्किलों को प्राथमिकता दिए जाने की वजह से कर्मियों के अधिकारों के साथ समझौता किया जा सकता है। सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए गैर-लाभकारी देखभाल कर्मियों से जिस त्याग और लचीलेपन की अपेक्षा की जाती है, उनके संदर्भ में संगठनों को रुकावट के रूप में देखा जाता है। संगठन द्वारा विरोध जताने पर कई गैर-लाभकारी प्रदाताओं का संगठन-विरोधी रवैया सबसे बुरे निजी प्रदाताओं से भी बदतर होता है। इसके चलते कई मामलों में मोलभाव के अधिकारों को ख़त्म भी किया गया है।      

प्रवासी कर्मी

देखभाल क्षेत्र में प्रवासी कर्मियों की बढ़ती संख्या भी इस क्षेत्र के संगठनों के लिए एक नई चुनौती है। चाहे काम के घंटे हों या रोज़गार के अन्य नियम, प्रवासी कर्मी दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र के सबसे शोषित कर्मियों में से हैं। इसके बावजूद, ऊपर रेखांकित किए गए कारणों की वजह से उन्हें संगठन से जोड़ना आसान नहीं है। इसके अलावा, हाल में आए प्रवासी कर्मियों को अक्सर संगठन के बारे सीमित जानकारी या अनुभव होता है। कुछ मामलों में, संगठन में शामिल होने का उनका पहले का अनुभव काफी नकारात्मक हो सकता है, जैसा कि पूर्वी यूरोपीय देशों से आने वाले कर्मियों में देखा गया है क्योंकि वहां संगठन दमनकारी वामपंथी सरकारों से जुड़े थे। प्रवासी कर्मियों द्वारा महसूस की जाने वाली असुरक्षा उन्हें संगठित करने की प्रक्रिया को और भी मुश्किल बना देती है क्योंकि वे ‘दिक्कत पैदा करने वाले’ कर्मियों के रूप में नहीं दिखाई देना चाहते और उन्हें प्रवासी होने की वजह से सीमित अधिकार दिए जाते हैं।            

मोलभाव कर पाने की शक्ति की कमी 

जिन निजी और गैर-लाभकारी प्रदाताओं के कर्मी संगठन से जुड़े हुए होते हैं, वहां आपूर्ति-श्रृंखला और संसाधन-निर्भरता की वजह से प्रभावी सामूहिक सौदेबाज़ी कर पाने की समभावनाएं काफी सीमित होती हैं। क्योंकि सरकार द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता बढ़ती महंगाई और लागत के अनुरूप नहीं होती है इसलिए जिन प्रदाताओं को ठेके दिए जाते हैं उनके साथ सामूहिक सौदेबाज़ी के ज़रिए सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मियों जितना वेतन और कामकाजी परिस्थितियां हासिल कर पाने की संभावना भी कम होती है। सामूहिक सौदेबाजी की इन सीमित संभावनाओं के पीछे कई कारण हैं। सबसे पहले, सार्वजनिक क्षेत्र के विपरीत, सामूहीक सौदेबाज़ी संस्था के स्तर पर की जा सकती हैं जो राष्ट्रीय समझौतों के तहत नहीं आती है। दूसरा, संस्था के स्तर पर, सरकार ‘तीसरे नियोक्ता’ की भूमिका निभाती है, क्योंकि सीधे तौर पर मोलभाव में शामिल नहीं होने के बावजूद सरकार द्वारा तय की गई बजटीय सहायता बहुत हद तक कर्मियों को दिए जाने वाले वेतन और लाभ तक करती है। इसके चलते, मोलभाव की इस विकेन्द्रीकृत प्रक्रिया में मज़दूर संगठन बजटीय आवंटन तय करने वाली सरकारी संस्थाओं के साथ न सीधे तौर पर मोलभाव कर सकते हैं न उन्हें जवाबदेह ही ठहरा सकते हैं। यही नहीं, इसकी वजह से कम वेतन के लिए प्रदाताओं को ज़िम्मेदार ठहरना और कर्मियों को सामूहिक कार्रवाई के लिए संगठित करना भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। जहाँ संगठन मौजूद हैं वहां भी संसाधन-निर्भरता और बजट कटौती की नीति की वजह से, कई बार संगठनों को रोज़गार सुरक्षा के बदले, कुछ समल के लिए, वेतन और अन्य लाभों में कम बढ़ोत्तरी स्वीकार करनी पड़ती है, जैसा कि ऑस्ट्रेलिया में दीर्घकालिक देखभाल संस्थाओं के स्तर पर की गई सौदेबाज़ी में देखा गया।    

सेवाओं का वैयक्तिकरण

सेवाओं का वैयक्तिकरण भी इस क्षेत्र में सामूहिक सौदेबाज़ी और संगठन की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। मौजूदा अध्ययन दर्शाते हैं कि सेवा-उपयोगकर्ता सार्वजनिक क्षेत्र में रोज़गार के स्वरुप और औद्योगिक रिश्तों को तीन स्तरों पर प्रभावित कर सकते हैं। पहला, सेवा की रूपरेखा तय करने में साझेदारी जिसमें सेवा-उपयोगकर्ता अपनी ज़रूरतों को व्यक्त करने के ज़रिए सेवा निर्धारित करने में योगदान देता है। दूसरा, सेवा के उत्पादन में साझेदारी, जिसके तहत सेवा-उपयोगकर्ता सेवा दिए जाने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। तीसरा और आखिरी स्तर है निगरानी में साझेदारी जिसके तहत सेवा-उपयोगकर्ता सेवा-प्रदाता की जवाबदेही तय करते हैं (बेलमारे, 2000)। लेकिन इन व्यक्तिगत योजनाओं के तहत सेवा-उपयोगकर्ता के अधिकार भी एक हद के बाद सीमित होते हैं क्योंकि काफी कुछ औद्योगिक रिश्तों को प्रभावित करने वाली बाकी इकाइयों पर भी निर्भर करता है जैसे नियोक्ता, संगठन, प्रबंधन (बेलमारे, 2000)।

दीर्घकालिक देखभाल कर्मियों को संगठित करने की प्रक्रिया और संगठन के प्रभाव पर होने वाले परिणाम

देखभाल कर्मियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों की और सामूहिक सौदेबाज़ी जैसे प्रभावी सामाजिक संवाद प्रावधानों की मौजूदगी देखभाल कर्मियों का वेतन का स्तर और कामकाजी परिस्थितियां निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है (आईएलओ, 2018)। लीडिया हैस (2017) दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में सामूहिक सौदेबाज़ी सुनिश्चित करने के सात कारण रेखांकित करती हैं:-

 

यह कारण हैं:-

  1. क्योंकि वयस्कों की दीर्घकालिक देखभाल एक उद्योग है

  2. देखभाल कार्य कुशल और बहुत ही पेचीदा पेशा है

  3. इस क्षेत्र में रोज़गार के नियम और शर्तें कर्मियों के लिए असुरक्षा पैदा करते हैं

  4. निचले स्तर की कामकाजी परिस्थितियों का मतलब है निचली गुणवत्ता वाली देखभाल

  5. इन समस्याओं को दूर करने के लिए व्यक्तिगत (कानूनी या अन्य) अधिकार काफी नहीं हैं

  6. देखभाल कर्मियों की आवाज़ों को देखभाल सेवाओं के बाजार के दबाव में दबा दिया जाता है

  7. सरकार द्वारा हस्तक्षेप के ज़रिए सामाजिक देखभाल क्षेत्र में रोजगार के स्तर को बढ़ाने की ज़रुरत है

 

संगठन क्या कर सकते हैं?

इस स्वतंत्र रिपोर्ट के, और इसमें शामिल किए गए केस अध्ययनों के निष्कर्षों को देखते हुए, हमारी सिफारिश है कि संगठन नीचे दिए गए विषयों पर ज़ोर दें:

●      अभियान इस सिद्धांत पर चलाएं जाएं कि उच्च गुणवत्ता वाली दीर्घकालिक देखभाल के लिए गरिमापूर्ण कार्य बहुत ज़रूरी है। 

●      उच्च गुणवत्ता वाली दीर्घकालिक देखभाल और गरिमापूर्ण कार्य के लिए अभियान चलाने के लिए इस रिपोर्ट में सुझाए गए छह सिद्धांतों को अपनाया जाए।

●      दीर्घकालिक देखभाल सेवाओं के बजट और संचालन के लिए ज़िम्मेदार सरकारी संस्थाओं की निर्णय-प्रक्रियाओं में गरिमापूर्ण कार्य के सिद्धांतों को शामिल किया जाए।    

●      सभी बाहरी प्रदाताओं (ठेकेदारों) को, जहाँ तक संभव हो, सामूहिक सौदेबाज़ी की प्रक्रिया के तहत लाया जाए। क्षेत्र-स्तरीय सौदेबाज़ी बेहतर होगी लेकिन संस्था के स्तर पर कर्मियों के प्रतिनिधित्व पर भी ध्यान दिया जाए।  

●      दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में संगठन बनाने की मौजूदा रणनीतियों का मूल्यांकन किया जाए और इसके आधार पर सार्वजनिक, निजी और स्वयंसेवी क्षेत्रों के कर्मियों को संगठन से जोड़ने के प्रभावी प्रयास किए जाएं। 

●      कोविड-19 महामारी से सीखे गए सबक पर ज़ोर देते हुए दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में उचित मरीज़-कर्मी अनुपात के लिए पैरवी की जाए।

●      बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वित्तीय लेनदेन में बेहतर पारदर्शिता के लिए अभियान चलाया जाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जनता का पैसा उचित तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है। 

●      गरिमापूर्ण वेतन के लिए अभियान चलाया जाए जिसके तहत, देखभाल कार्य को उसका सही मूल्य दिया जाए, निजी, सार्वजनिक और स्वयंसेवी क्षेत्र के अंतरों को ध्यान में रखा जाए, और तरक्की तथा अनुभव के अनुसार वेतन बढ़ाया/तय किया जाए।   

●      देखभाल की पूरी लागत जितना बजट दिए जाने के लिए अभियान चलाया जाए जिसके तहत घर पर सेवाएं उपलब्ध कराने वाले कर्मियों को एक घर से दूसरे तक जाने में खर्च होने वाले समय के लिए भुगतान किया जाए।

●      अन्य गैर-वेतन लाभों में सुधार किए जाए, खासतौर पर वेतन-सहित छुट्टी, पेंशन और रोज़गार सुरक्षा में।   

●      काम के घंटों को व्यवस्थित किया जाए ताकि कर्मियों पर अत्यधिक काम का बोझ न पड़े और घंटों के हिसाब से काम करने वाले कर्मियों को पर्याप्त घंटों का काम भी मिले।  

●      बंटी हुई काम की शिफ्ट या अवधी की समस्या को संबोधित किया जाए ताकि कर्मियों के जीवन में काम और घर के बीच टकराव न हो। 

●      शून्य-घंटा अनुबंध (जैसा कि यूके में प्रचलित है) आधारित रोज़गार जैसी शोषणकारी पद्धतियों को बंद किया जाए।  

●      नई प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से जुड़े निर्णय लेने की प्रक्रिया में कर्मियों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए।

●      मौजूदा दीर्घकालिक देखभाल प्रणालियों को मजबूत बना कर सेवाओं में सुधार लाया जाए। वैश्विक दक्षिण के उन देशों में जहाँ एकीकृत दीर्घकालिक देखभाल प्रणाली मौजूद नहीं हैं वहां उपलब्ध स्वास्थ्य प्रणाली के ज़रिए बुजुर्गों के लिए उचित सेवाएं सुनिश्चित की जा सकती हैं।  

●      वैश्विक दक्षिण में दीर्घकालिक देखभाल क्षेत्र में औपचारिक और अनौपचारिक रूप से काम करने वाले कर्मियों के बारे में सटीक जानकारी इकट्ठी की जाए।  

●      वैश्विक दक्षिण के दशों में अनौपचारिक कर्मियों के रोज़गार अधिकारों पर ज़ोर दिया जाए, जिसमें मानदेय के बजाए उचित वेतन दिया जाना शामिल हो।

●      गंतव्य देशों में प्रवासी कर्मियों पर विशेष ध्यान दिया जाए जिसमें स्थानीय कर्मियों की संख्या बढ़ाने पर ज़ोर देना भी शामिल हो।


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